सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय
सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय 2023: Sumitranandan Pant ka Jivan Parichay in Hindi

सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय | सुमित्रानंदन पंत की जीवनी | Sumitranandan Pant ka Jivan Parichay | Biography of Sumitranandan Pant in Hindi | Sumitranandan Pant Jeevani Hindi Me

सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय (Sumitranandan Pant ka Jivan Parichay): सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न है जो अक्सर विभिन्न कक्षाओं और परीक्षाओं में पूछा जाता है। सुमित्रानंदन पंत, भारतीय साहित्य के क्षेत्र में एक महान व्यक्तित्व, कविता और गद्य के इतिहास में एक अमिट नाम है। 1900 में जन्मे, सुमित्रानंदन पंत ने अपनी काव्य रचनाओं द्वारा हिंदी साहित्य के क्षेत्र में जान फूंक दी। गहन दार्शनिक आधार और कल्पनाशील विशेषता वाले पंत के छंदों ने पाठकों के दिलों को मंत्रमुग्ध कर दिया और आलोचनात्मक प्रशंसा भी प्राप्त की। उनकी साहित्यिक यात्रा आत्मबोध और सामाजिक उत्थान की यात्रा थी, क्योंकि उन्होंने प्रकृति, आध्यात्मिकता और मानवीय भावनाओं के विषयों को अपने रचनाओं में सहजता से पिरोया था। साहित्य अकादमी पुरस्कार और ज्ञानपीठ पुरस्कार सहित कई अन्य प्रतिष्ठित पुरस्कारों के विजेता, हिंदी साहित्य में पंत का योगदान उनकी स्थायी विरासत का एक प्रमाण है, जो लेखकों और पाठकों की पीढ़ियों को समान रूप से प्रेरित करता रहता है।

आज हम सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय लिखेंगे। हमारा प्रयास है कि विद्यार्थी छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत के जीवन और उनकी कृतियों के बारे में जाने और उनसे प्रेरित हों। हम आपके बहुत से प्रश्नों का उत्तर देने को कोशिश इस सुमित्रानंदन पंत की जीवनी के माध्यम से करेंगे जैसे, सुमित्रानंदन पंत की प्रमुख रचनाएं कौन कौन सी है? सुमित्रानंदन पंत की पहली कविता कौन सी है? सुमित्रानंदन पंत का उपनाम क्या है? सुमित्रानंदन पंत की प्रमुख कृतियाँ? आदि। तो आइये शुरू करते हैं, सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय (Sumitranandan Pant ka Jivan Parichay)..

सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय (Sumitranandan Pant ka Jivan Parichay in Hindi)

सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय –

हिंदी साहित्य का भारतीय इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा है। भारत में ऐसे कई लेखक और कवि हुए हैं जिन्होंने अपनी लेखनी, अपनी रचनाओं और अपने लेखों के माध्यम से समाज को बेहतर बनाया। जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और अन्य लेखकों की रचनाओं की तरह ही सुमित्रानंदन पंत ने हिंदी साहित्य में महान योगदान दिया। सुमित्रानंदन पंत के नाम के बिना हिंदी साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती।

सुमित्रानंदन पंत का जन्म बागेश्वर ज़िले के कौसानी गांव में 20 मई, सन 1900 ई॰ को हुआ। जन्म के कुछ देर बाद ही उनकी माँ का निधन हो गया। उनका पालन पोषण, उनकी दादी ने किया। सुमित्रानंदन पंत का बचपन का नाम गुसाईं दत्त था। उनका बचपन कौसानी गाँव में बीता उसके बाद उन्होंने अल्मोडा और फिर बनारस के ‘क्वींस’ कॉलेज में उच्च शिक्षा प्राप्त की। उन्हे अपना बचपन का नाम गुसाईं दत्त पसंद नहीं था अतः उन्होंने इसे बदलकर अपना नाम सुमित्रानंदन पंत रख लिया था। मात्र 16 वर्ष की आयु में,वर्ष 1916 में इन्होंने ‘गिरजे का घंटा’ नामक सर्वप्रथम रचना लिखी। पंत का, काशी में सरोजिनी नायडू और रवीन्द्रनाथ टैगोर की रोमांटिक और अंग्रेजी कविता से परिचय हुआ, यहीं उन्होंने एक कविता प्रतियोगिता में भाग लिया और उन्हें काफी प्रशंसा मिली। उनकी रचनाएँ “सरस्वती पत्रिका” में प्रकाशित होने के बाद साहित्य प्रेमियों के दिलों पर छा गईं। 1950 में वे ‘ऑल इंडिया रेडियो’ के सलाहकार बन गए और 1957 तक सीधे रेडियो से जुड़े रहे। सुमित्रानंदन पंत प्रमुख छायावादी रचनाकारों में से एक थे। 28 दिसंबर, 1977 को भारतीय हिंदी साहित्य का यह सुकुमार कवि पंचतत्व में विलीन हो गया।

सुमित्रानंदन पंत का साहित्यिक परिचय –

सुमित्रानंदन पंत का बचपन कौसानी के सुरम्य वातावरण में बीता। प्रकृति का सुमित्रानंदन पर गहरा प्रभाव पड़ा और उन्होंने प्रकृति के बीच रहकर अपनी काव्य-साधना भी की। इसीलिए उनके काव्य में प्रकृति वर्णन, सौन्दर्य प्रेम तथा कोमल कल्पना प्रमुखता से मिलती है। वर्ष 1916 में सुमित्रानंदन पंत ने ‘गिरजे का घंटा’ नामक अपनी पहली रचना लिखी। इलाहाबाद के ‘म्योर सेन्ट्रल कॉलेज’ में प्रवेश लेने के बाद उनकी साहित्यिक रुचि और भी अधिक विकसित हो गई। वर्ष 1920 में उनकी रचनाएँ ‘उच्छवास’ और ‘ग्रंथी’ में प्रकाशित हुईं। इसके बाद वर्ष 1927 में उनके ‘वीणा’ और ‘पल्लव’ नामक दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। उन्होंने ‘रूपाभ’ नामक प्रगतिशील विचारों वाले पत्र का संपादन भी किया। वर्ष 1942 में वे महर्षि अरविन्द घोष के संपर्क में आये। सुमित्रानंदन पंत को ‘कला और बूढ़ा चांद’ पर ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’, ‘लोकायतन’ पर ‘सोवियत भूमि पुरस्कार’ और ‘चिदंबरा’ पर भारतीय ‘ज्ञानपीठ’ पुरस्कार मिला। भारत सरकार ने पंत को ‘पद्म भूषण’ की उपाधि से अलंकृत किया। अपनी रचनाओं में प्रकृति-वर्णन की सुन्दर छवि दिखाने के कारण पंत जी को हिन्दी साहित्य का “वर्डसवर्थ” भी कहा जाता है। कवीन्द्र रवीन्द्र, स्वामी विवेकानन्द और अरविन्द दर्शन का भी पन्त के साहित्य पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है, अत: उनकी बाद की रचनाओं में अध्यात्मवाद और मानवतावाद का दर्शन मिलता है। निःसंदेह सुमित्रानंदन पंत छायावादी काव्य के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं; उनकी कल्पनाशक्ति ऊंची, भावना कोमल और अभिव्यक्ति प्रभावशाली होती है। वह काव्य जगत में मृदुभाषी एवं सौम्य कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। इस दृष्टि से पंत जी का हिन्दी साहित्य में सर्वोपरि स्थान है।

उनकी काव्य चेतना का विकास प्रयाग में हुआ, लेकिन उन्होंने छोटी उम्र से ही कविताएँ लिखना शुरू कर दिया था। 1916 से 1977 तक लगभग 60 वर्षों की अवधि में लिखी गयी, उनकी काव्य यात्रा को तीन चरणों में बांटा जा सकता है। सन 1916-35 का पहला चरण छायावादी काव्य का था, जिसमें ‘वीणा’, ‘ग्रंथी’, ‘पल्लव’, ‘गुंजन’ और ‘ज्योत्सना’ संग्रह प्रकाशित हुए। छायावादी रचनात्मकता का सर्वोत्तम उदाहरण “पल्लव” संग्रह उनकी कला का सर्वोत्तम उदाहरण माना जाता है। मार्क्स और फ्रायड के प्रभाव में दूसरा चरण प्रगतिशील कविता का है, जहां वह सौंदर्य-चेतना से आगे बढ़कर आम आदमी को समझने की कोशिश करती है। इसी समय उनकी “युगांत”, “गुण-वाणी” और “ग्राम्या” पुस्तकें प्रकाशित हुईं। तीसरी धारा अध्यात्मवाद पर आधारित है जब वे अरविन्द-दर्शन से प्रभावित थे। वह इस चरण में आध्यात्मिक भावलोक की ओर बढ़ता है, जिसमें स्वर्ण-धूल, अतिमा, रजत शिखर और लोकायतन शामिल हैं।

सुमित्रानंदन पंत का संक्षिप्त जीवन परिचय (Biography of Sumitranandan Pant in Short)

Sumitranandan Pant ka Jivan Parichay

प्रचलित नामसुमित्रानंदन पंत
वास्तविक नामगोसाई दत्त
जन्म20 मई 1900, कौसानी, उत्तराखंड
मृत्यु28 दिसम्बर 1977, प्रयागराज, उत्तरप्रदेश
पुरस्कारपद्म भूषण (1961), ज्ञानपीठ पुरस्कार (1969), साहित्य अकैडमी पुरस्कार (1960)
कविताएँसन्ध्या, तितली, ताज, मानव, बापू के प्रति, अँधियाली घाटी में, मिट्टी का गहरा अंधकार, ग्राम श्री आदि
प्रसिद्धि का कारणलेखक, छायावादी कवि
माता – पितासरस्वती देवी – गंगा दत्त पंत
भाषा ज्ञानसंस्कृत, अंग्रेजी, बांग्ला और हिंदी
प्रारंभिक शिक्षाकौसानी गांव
उच्च शिक्षावाराणसी और प्रयागराज
शैलीगीतात्मक
मुख्य कृतियांपल्लव, पीतांबरा एवं सत्यकाम

भाषा शैली

सुमित्रानंदन पंत का लेखन अत्यधिक सुंदर और मधुर है। उन्होंने बांगला और अंग्रेजी भाषा के प्रभाव से प्रेरित होकर गीतात्मक शैली को अपनाया। उनकी शैली की प्रमुख विशेषताएं सरलता, मधुरता, चित्रात्मकता, कोमलता और संगीतात्मकता हैं।

सुमित्रानंदन पंत की कृतियां और रचनाएं (Sumitranandan Pant ki Kritiyaan aur Rachanaen)

सुमित्रानंदन पंत जब सात वर्ष की आयु में थे, और वे अभी चौथी कक्षा में पढ़ रहे थे, उस समय उन्होंने कविता लिखना शुरू कर दिया था। लगभग 1918 के आसपास तक, उन्हें हिंदी के नवाचारी कवि के रूप में पहचाना जाने लगा था। उनकी इस युग की कविताएं वीणा की तरह संकलित हैं।

पंत जी की कृतियां निम्नलिखित हैं –

काव्य – वीणा, ग्रंथि, पल्लव, गुंजन, स्वर्ण किरण, युगांत, युगवाणी, लोकायतन, चिदंबरा, आदि।

नाटक – रजतरश्मि, शिल्पी, ज्योत्सना आदि।

उपन्यास – हार

कहानियाँ – पाँच कहानियाँ (1938)

आत्मकथात्मक संस्मरण – साठ वर्ष: एक रेखांकन (1963)

सुमित्रानंदन पंत के महाकाव्य

“लोकायतन” कवि सुमित्रानन्दन पन्त का एक महाकाव्य है। कवि की विचारधारा और लोक-जीवन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता इस कृति में प्रकट होती है। इस काव्य के लिए सुमित्रानन्दन पंत को ‘सोवियत रूस’ और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा सम्मानित किया गया है। पंत जी की अपने माता-पिता के प्रति गहरी श्रद्धा थी, और उन्होंने अपने दो महाकाव्यों के माध्यम से इस भावना को व्यक्त किया है। पहले महाकाव्य ‘लोकायतन’ को उन्होंने अपने पूज्य पिता को समर्पित किया और दूसरे महाकाव्य “सत्यकाम”, को अपनी स्नेहमयी माता को समर्पित किया है। इन महाकाव्यों में वे अपनी माता सरस्वती देवी की यादों को संजोकर उन्हें स्मरण करते हैं, और ‘सत्यकाम’ नामक महाकाव्य में उनके विशेष शब्द हैं –

मुझे छोड़ अनगढ़ जग में तुम हुई अगोचर,
भाव-देह धर लौटीं माँ की ममता से भर !
वीणा ले कर में, शोभित प्रेरणा-हंस पर,
साध चेतना-तंत्रि रसौ वै सः झंकृत कर
खोल हृदय में भावी के सौन्दर्य दिगंतर !

सुमित्रानंदन पंत के पुरस्कार व उपाधि

हिंदी साहित्य में सुमित्रानंदन पंत की सेवा के लिए उन्हें पद्म भूषण (1961), ज्ञानपीठ (1968), साहित्य अकादमी पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें हिंदी साहित्य का “शिल्पी” भी कहा जाता है। छायावाद पर आधारित उनके प्रकृति चित्रण, सौंदर्य और मनोरम काल्पनिक चित्रण के कारण सुमित्रानंदन पंत को “सुकुमार” कवि भी कहा जाता है।

सुमित्रानंदन पंत संग्रहालय

उत्तराखंड में कुमाऊं की पहाड़ियों के कौसानी गांव में उनका घर, जहां उन्होंने अपना बचपन बिताया, अब ‘सुमित्रा नंदन पंत साहित्यिक गैलरी’ नामक एक संग्रहालय बन गया है। इस संग्रहालय में सुमित्रानंदन पंत के कपड़े, चश्मा, कलम आदि निजी सामान सुरक्षित रखा गया है। उन्हें प्राप्त ज्ञानपीठ पुरस्कार का प्रशस्ति पत्र, हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा प्राप्त साहित्य वाचस्पति का प्रशस्ति पत्र भी संग्रहालय में मौजूद है। इसके साथ ही उनकी लोकायतन, आस्था आदि की पांडुलिपियां भी सुरक्षित रखी गई हैं। कालाकांकर के कुँवर सुरेश सिंह और हरिवंश राय बच्चन के साथ उनके पत्र-व्यवहार की प्रतियाँ भी यहाँ मौजूद हैं। संग्रहालय में उनकी स्मृति में हर वर्ष पंत व्याख्यानमाला का आयोजन किया जाता है। यहां से ‘सुमित्रानंदन पंत का व्यक्तित्व एवं कृतित्व’ नामक पुस्तक भी प्रकाशित हुई है। प्रयागराज (इलाहाबाद) शहर में हाथी पार्क का नाम उनके नाम पर ‘सुमित्रानंदन पंत बाल उद्यान’ रखा गया है।

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स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय 2023: Swami Vivekanand ka Jivan Parichay

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स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय (Swami Vivekanand ka Jivan Parichay): स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय सभी को जानने की आवश्यकता है क्योंकि उनकी जीवनी सभी के लिए एक प्रेरणा का स्रोत है और स्वामी विवेकानंद के सिद्धांत, विचार और योगदान आज भी हमारे आध्यात्मिक और समाजिक जीवन को प्रभावित कर रहे हैं। स्वामी विवेकानंद ने धर्म की महत्व को समझाया और सामाजिक सेवा को धर्म का एक हिस्सा माना। उन्होंने सिखाया कि सच्चे धर्म का अर्थ है – “दूसरों की सेवा करना”। स्वामी विवेकानंद ने ध्यान और योग के माध्यम से आत्मा के आध्यात्मिक विकास बताया। उनके अनुसार, योग के माध्यम से हम अपने मानसिक स्थिति को सुधार सकते हैं और आत्मा के अद्वितीयता को महसूस कर सकते हैं। स्वामी विवेकानंद ने विश्व में भारतीय संस्कृति, धर्म, और तत्त्वज्ञान का प्रचार प्रसार किया। उन्होंने भारतीय धर्म और दार्शनिक विचारों को पश्चिमी विश्व में प्रस्तुत किया और उन्हें समझाने का प्रयास किया। आज हम Curious Kids Kingdom पर स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय लिखेंगे। विवेकानंद की जीवनी अक्सर लिखने को पूछा जाता है। हमारा प्रयास है कि विद्यार्थी स्वामी विवेकानन्द के जीवन से प्रेरित हों और उनके विचार और सिद्धांतों को अपने जीवन में भी अपनाने का प्रयास करें। हम आपके बहुत से प्रश्नों का उत्तर देने को कोशिश इस जीवनी के माध्यम से करेंगे जैसे कि स्वामी विवेकानंद जी का जन्म कब हुआ? स्वामी विवेकानंद के कार्य? स्वामी विवेकानंद के सिद्धांत? स्वामी विवेकानंद के गुरु का नाम? स्वामी विवेकानंद जी की मृत्यु कैसे हुई? आदि। तो आइये शुरू करते हैं, स्वामी विवेकानन्द का जीवन परिचय (Biography of Swami Vivekanand in Hindi)

स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय (Swami Vivekanand ki Jeevani):

स्वामी विवेकानंद का बचपन

स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता के एक कायस्थ परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री विश्वनाथ दत्त और माता का नाम श्रीमती भुवनेश्वरी देवी था। उनके बचपन का घर का नाम वीरेश्वर था। स्वामी विवेकानन्द का वास्तविक नाम नरेंद्र नाथ दत्त था। स्वामी विवेकानंद के पिता कलकत्ता उच्च न्यायालय के प्रसिद्ध वकील थे। वह पश्चिमी सभ्यता में रूचि रखते थे और चाहते थे कि उनका पुत्र भी अंग्रेजी पढ़कर पश्चिमी सभ्यता की राह पर चले। विवेकानंद की माता जी धार्मिक विचारों वाली महिला थीं। उनका अधिकांश समय भगवान शिव की आराधना में व्यतीत होता था। वह विवेकानंद को बाल्यकाल में रामायण और महाभारत की कहानियां सुनाया करती थी। जिससे उनकी आध्यात्म में रूचि बढ़ने लगी। कहानियां सुनते समय उनका मन हर्षोल्लास से भर उठता था। रामायण सुनते सुनते बालक नरेंद्र का ह्रदय भक्ति रस से भर जाता था। वे अक्सर अपने घर में ही ध्यान मग्न हो जाया करते थे। नरेंद्र बचपन से ही बहुत तीव्र बुद्धि के बालक थे और उनके ह्रदय में ईश्वर को पाने की लालसा भी प्रबल थी।

स्वामी विवेकानंद की शिक्षा

सन् 1871 में, आठ वर्ष की उम्र में, नरेन्द्रनाथ ने ईश्वर चंद्र विद्यासागर के मेट्रोपोलिटन संस्थान में दाखिला लिया और शिक्षा प्रारम्भ की। सन् 1877 में उनका परिवार रायपुर चला गया। 1879 में, कलकत्ता में अपने परिवार की वापसी के बाद, विवेकानंद एकमात्र छात्र थे जिन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज प्रवेश परीक्षा में प्रथम डिवीजन अंक प्राप्त किये। नरेंद्र नाथ को कला, साहित्य, दर्शन, धर्म, इतिहास और सामाजिक विज्ञान जैसे विषयों को पढ़ने में रूचि थी। स्वामी विवेकानंद ने वेदों, उपनिषदों, भगवद गीता, महाभारत, पुराणों और कई अन्य हिंदू धर्म ग्रंथों का भी गहरा अध्ययन किया। नरेंद्र भारतीय शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित थे और नियमित रूप से खेल और व्यायाम करते थे। नरेंद्र ने जनरल असेंबली इंस्टीट्यूशन (अब स्कॉटिश चर्च कॉलेज) में विस्तारपूर्वक पश्चिमी तर्क, पश्चिमी दर्शन और यूरोपीय इतिहास का अध्ययन किया। 1881 में उन्होंने ललित कला की परीक्षा उत्तीर्ण की और 1884 में कला स्नातक की उपाधि प्राप्त की।
नरेंद्र नाथ ने डेविड ह्यूम, इमैनुएल कांट, जोहान गोटलिब फिच्टे, बारूक स्पिनोज़ा, जॉर्ज डब्ल्यू एच हेगेल, आर्थर शोपेनहावर, ऑगस्टे कॉम्टे और जॉन स्टुअर्ट के लेखों का गहराई से अध्ययन किया। हर्बर्ट स्पेंसर के विकासवाद का उन पर बहुत प्रभाव पड़ा। उन्होंने पश्चिमी दार्शनिकों के साथ-साथ संस्कृत और बंगाली साहित्य को भी पढ़ा।
नरेंद्र नाथ की कुशाग्र बुद्धि और योग्यता से प्रभावित होकर, विलियम हेस्टी (तत्कालीन महासभा संस्थान के प्रिंसिपल) ने लिखा, “नरेंद्र वास्तव में एक प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं। मैंने कई स्थानों की यात्रा की है, कई छात्रों से मिला हूँ, लेकिन जर्मन विश्वविद्यालयों के दर्शनशास्त्र के छात्रों में भी मैंने उनके (विवेकानंद) जैसी प्रतिभा नहीं देखी।”

स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय संक्षिप्त में (Swami Vivekanand Biography in Short)

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वास्तविक नामनरेन्द्रनाथ दत्त
सन्यास के बाद का नामस्वामी विवेकानंद
माता का नामभुवनेश्वरी देवी
पिता का नामविश्वनाथ दत्त
भाई – बहन9
बचपन का नामनरेन्द्र और नरेन
जन्म तिथि12 जनवरी, 1863
जन्म स्थानकलकत्ता, भारत
मृत्यु4 जुलाई, 1902
मृत्यु स्थानबेलूर, पश्चिम बंगाल, भारत
गुरु का नामरामकृष्ण परमहंस
संस्थापकरामकृष्ण मिशन और बेलूर मठ
साहित्यिक कार्यराजयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, मेरे गुरु

स्वामी विवेकानंद का आध्यात्मिक जीवन

नरेंद्र नाथ का स्नातक शिक्षा के दौरान ही वेदांत, अध्यात्म और हिन्दू धर्म के प्रति रुझान बढ़ रहा था। अपने मन में उठने वाली उनके जिज्ञासाओं के समाधान के लिए वह अनेक लोगो से मिले, परन्तु उनका मन चित्त शांत नहीं हुआ। विद्यार्थी जीवन में वह ब्रह्म समाज के नेता महर्षि देवेंद्र नाथ ठाकुर के संपर्क में आए। स्वामी विवेकानंद जी की जिज्ञासा को शांत करने के लिए उन्होंने नरेंद्र को रामकृष्ण परमहंस के पास जाने की सलाह दी। नरेंद्र नाथ ने 25 वर्ष की उम्र में ही अपना घर और परिवार को छोड़कर सन्यासी बनने का निश्चय किया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस दक्षिणेश्वर काली मंदिर के पुजारी थे। राम कृष्ण परमहंस ने नरेंद्र को देखते ही पहचान लिया और कहा कि, “जिस शिष्य की मैं प्रतीक्षा कर रहा था वह तुम हो।” स्वामी रामकिशन परमहंस की कृपा से नरेंद्र को आत्मज्ञान प्राप्त हुआ और वह परमहंस जी के प्रमुख शिष्य हो गए। संन्यास की दीक्षा लेने के बाद नरेंद्र नाथ का नाम स्वामी विवेकानंद हो गया।

स्वामी विवेकानंद जी और श्री रामकृष्ण परमहंस

स्वामी विवेकानंद के गुरु का नाम श्री रामकृष्ण परमहंस था। श्री रामकृष्ण परमहंस भारत के एक महान संत, आध्यात्मिक गुरु एवं विचारक थे। वह दक्षिणेश्वर काली मंदिर के पुजारी थे। विवेकानंद की मुलाकात उनसे वही हुई। परमहंस के विचारों से प्रभावित होकर विवेकानंद उनके शिष्य बन गए। विवेकानंद ने श्री रामकृष्ण परमहंस से धर्म और वेदों का ज्ञान हासिल किया था। कहा जाता है कि एक बार विवेकानंद जी ने श्री रामकृष्ण परमहंस से एक सवाल करते हुए पूछा था कि, “क्या आपने भगवान को देखा है?” दरअसल विवेकानंद से लोग अक्सर इस सवाल को किया करते थे और उनके पास इस सवाल का जवाब नहीं हुआ करता था। इसलिए जब वो श्री रामकृष्ण परमहंस से मिले तो उन्होंने श्री रामकृष्ण परमहंस से यही सवाल किया था। इस सवाल के जवाब में श्री रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानंद जी से कहा, हां मैंने भगवान को देखा है। मैं आपके अंदर भगवान को देखता हूं। भगवान हर किसी के अंदर स्थापित हैं। श्री रामकृष्ण परमहंस का ये जवाब सुनकर स्वामी विवेकानंद के मन को संतुष्टि मिली और इस तरह से उनका झुकाव रामकृष्ण परमहंस की ओर बढ़ने लगा और विवेकानंद जी ने श्री रामकृष्ण परमहंस के मुख्य शिष्य बन गए।

रामकृष्ण परमहंस जीवन के अंतिम दिनों में समाधि की स्थिति में रहने लगे। अत: उनका शरीर शिथिल होने लगा था। डाक्टरों ने कैंसर बताकर समाधि लेने और वार्तालाप से मना किया था। एक बार विवेकानंद अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के पास जाकर उनसे हिमालय के किसी एकान्त स्थान पर जाकर, तपस्या करने की आज्ञा मांगी तो रामकृष्ण परमहंस ने कहा – वत्स हमारे आसपास के क्षेत्र के लोग भूख से तड़प रहे हैं, चारों ओर अज्ञान का अंधेरा छाया हुआ है। यहां लोग रोते-चिल्लाते रहें और तुम हिमालय की किसी गुफा में समाधि के आनन्द में निमग्न रहो। क्या तुम्हारी आत्मा ऐसा करना स्वीकार कर पाएगी? उन्होंने विवेकानंद को गरीबों की सेवा करने के लिए प्रेरित किया। गुरु की प्रेरणा से विवेकानन्द दरिद्र नारायण की सेवा में लग गये। चिकित्सा कराने से रोकने पर भी विवेकानन्द ने अपने गुरु का इलाज जारी रखा। चिकित्सा के वाबजूद रामकृष्ण परमहंस का स्वास्थ्य बिगड़ता रहा और सन् 1886 ई. में श्रावणी पूर्णिमा के अगले दिन प्रतिपदा को प्रातःकाल रामकृष्ण परमहंस ने देह त्याग दिया।

स्वामी विवेकानंद का भारत भ्रमण

16 अगस्त 1886 को अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु के बाद, स्वामी विवेकानंद कुछ दिनों तक एकांतवास में समाधी में रहे। इसके बाद वह गरीबों की सेवा के लिए भारत भ्रमण पर निकले। पैदल यात्रा करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने प्रयागराज, अयोध्या, बनारस, आगरा, वृन्दावन तथा कई अन्य स्थानों का भ्रमण किया। इस दौरान वे कई संतों, गरीबों, राजाओं और ब्राह्मणों के घर रहे। इस यात्रा के दौरान स्वामी विवेकानंद ने यह अनुभव किया कि कई अलग-अलग क्षेत्रों में जातिवाद और भेदभाव की भावना अत्यधिक है। जाति व्यवस्था को समाप्त करने के लिए उन्होंने अनेक प्रयास किये गये। 23 दिसंबर 1892 को वे भारत के अंतिम छोर कन्याकुमारी पहुंचे और तीन दिनों तक समाधि में रहे। फिर उनकी मुलाकात राजस्थान के आबू रोड में अपने गुरु भाइयों स्वामी ब्रह्मानंद और स्वामी तूर्यानंद से हुई। पूरे भारत में भ्रमण के दौरान स्वामी जी ने देश की गरीबी और पीड़ित लोगों को देखा और भारत को पूर्ण रूप से स्वतंत्र कराने और भारत के बारे में दुनिया के सोचने के तरीके को बदलने का निर्णय लिया।

स्वामी विवेकानंद की शिकागो,अमेरिका यात्रा

भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म के प्रचार प्रसार के लिए, विवेकानंद ने 31 मई 1893 को अपनी यात्रा शुरू की। उन्होंने जापान के कई शहरों जैसे नागासाकी, कोबे, योकोहामा, ओसाका, क्योटो और टोक्यो समेत का दौरा किया, तत्पश्चात चीन और कनाडा होते हुए स्वामी विवेकानंद अमेरिका के शिकागो पहुँचे। 11 सितंबर 1893 में शिकागो, अमेरीका में विश्व धर्म परिषद् का आयोजन हुआ था। स्वामी विवेकानन्द उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुँचे। स्वामी विवेकानन्द को सर्व धर्म परिषद् में बोलने का बहुत कम समय दिया गया था, परंतु स्वामी विवेकांनद द्वारा अपने भाषण के सम्बोधन में बोले गए ” मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों” ने सम्मलेन में बैठे विद्वानों पर ऐसा गहरा प्रभाव डाला कि स्वामी जी को बोलने की समय सीमा ही न रही। आर्ट इंस्टीट्यूट ऑफ शिकागो में पूरे दो मिनट तक तालियाँ गूंजती रही। स्वामी विवेकानंद ने अपने भाषण में भारत का परिचय विश्व गुरु के रूप में दिया और कहा कि “मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों के सताए लोगों को शरण में रखा है”। उस परिषद् में उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गये।

अमेरीका में उनका भव्य स्वागत हुआ। वहाँ उनके अनेक भक्त बन गए। तीन वर्ष विवेकानंद अमरीका में रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान की। उनकी वक्तृत्व-शैली तथा ज्ञान को देखते हुए वहाँ के मीडिया ने उन्हें “साइक्लॉनिक हिन्दू” का नाम दिया। आध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जायेगा” इस कथन में स्वामी विवेकानन्द का दृढ़ विश्वास था।

इसके बाद स्वामी विवेकानंद ने हार्वर्ड विश्वविद्यालय में संभाषण, न्यूयॉर्क में वेदान्त समिति की स्थापना, पेरिस में, ऑक्सफोर्ड में, लन्दन में, आदि अनेक जगहों पर सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति से जुड़े व्याख्यान दिए।

रामकृष्ण मिशन की स्थापना

1 मई 1897 को स्वामी विवेकानंद जी ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी। इस मिशन उद्देश्य नव भारत का निर्माण और अनेक अस्पताल, स्कूल और कॉलेजों का निर्माण था। रामकृष्ण मिशन के बाद विवेकानंद जी ने सन 1898 में बेलूर मठ (Belur math) की स्थापना की थी। इसके अलावा इन्होंने अन्य और दो मठों की स्थापना की थी।

स्वामी विवेकानंद के व्यक्तित्व का प्रभाव

स्वामी विवेकानंद का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि वह ऐसे अनेक महान लोगो को प्रभावित कर गया जो स्वयं दूसरों को प्रभावित करने में पूर्णतया सक्षम थे। ऐसे महान व्यक्तियों में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर, अरबिंदो घोष, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, नेता जी सुभाष चंद्र बोस, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू, जमशेदजी टाटा, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, वैज्ञानिक निकोला टेस्ला, एनी बेसेंट, वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अन्ना हजारे आदि शामिल हैं।

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एक बार कहा था, “यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढ़िये। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पायेंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।”

रोमां रोलां ने उनके बारे में कहा था कि, “उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असम्भव है, वे जहाँ भी गये, सर्वप्रथम ही रहे।

हिमालय में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देख ठिठक कर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा “शिव”, उसे विवेकानंद में शिव दिखाई दिए।

स्वामी विवेकानंद की साहित्य रचनाएँ

स्वामी विवेकानंद एक अच्छे चित्रकार, लेखक और गायक थे। यह कहना गलत नहीं होगा कि स्वामी विवेकानंद संपूर्ण कलाओं में निपुण थे। उनके द्वारा लिखे गए निबंध रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन दोनों ही मैगजीन में छपे। उनकी भाषा पर बहुत अच्छी पकड़ थी। जिसके कारण उनके द्वारा दिए गए व्याख्यान, लेक्चर और भी अधिक प्रभावी और समझने में आसान होते थे।
स्वामी विवेकानंद की प्रमुख रचनाएं अथवा साहित्य निम्नलिखित थे:

  • संगीत कल्पतरू,
  • कर्मयोग,
  • राजयोग (न्यूयॉर्क में दिए गए भाषणों के दौरान कही गई बातों का संकलन),
  • भक्ति योग
  • ज्ञान योग
  • लेक्चर्स फ्रॉम कोलंबो टू अल्मोड़ा,
  • बंगाली रचना – वर्तमान भारत
  • माय मास्टर (न्यूयॉर्क की बेकर एंड टेलर कंपनी द्वारा)
  • वेदांत फिलॉसफी, आदि

स्वामी विवेकानंद की मृत्यु

स्वामी विवेकानंद का स्वर्गवास, 4 जुलाई 1902 को बेलूर मठ में हुआ था। मृत्यु के समय उनकी आयु मात्र 39 साल की थी। इतनी कम आयु में भी विवेकानंद ने कई जन्मों का ज्ञान पूरे विश्व को दिया। जीवन के अन्तिम दिनों में उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा कि “एक और विवेकानन्द चाहिये, यह समझाने के लिये कि इस विवेकानन्द ने अब तक क्या किया है।” बेलूर में गंगा तट पर उनकी अंत्येष्टि की गयी। इसी गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का सोलह वर्ष पूर्व अन्तिम संस्कार हुआ था।

स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन के मूल सिद्धान्त

  • शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिससे बच्चे का शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास हो सके।
  • लड़के और लड़कियों दोनों को समान शिक्षा दी जानी चाहिए।
  • पाठ्यक्रम में लौकिक एवं पारलौकिक दोनों विषयों को स्थान दिया जाना चाहिए।
  • शिक्षक और छात्र के बीच का रिश्ता यथासंभव घनिष्ठ होना चाहिए।
  • देश की आर्थिक उन्नति के लिए तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए।
  • शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो सीखने वाले को जीवन की चुनौतियों से संघर्ष करने की ताकत दे।
  • शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो बच्चे के चरित्र का निर्माण करे, मन, बुद्धि का विकास करे।
  • धार्मिक शिक्षा किताबों के माध्यम से नहीं, आचरण और संस्कारों के माध्यम से दी जानी चाहिए।
  • गुरु गृह में शिक्षा प्राप्त की जा सकती है।
  • शिक्षा का सामान्य रूप से प्रचार एवं प्रसार किया जाना चाहिए।

स्वामी विवेकानंद के अनमोल वचन

  • उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। अर्थात उठो जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता।
  • चिंतन करो, चिंता नहीं, नए विचारों को जन्म दो।
  • शक्ति जीवन है, निर्बलता मृत्यु है। विस्तार जीवन है, संकुचन मृत्यु है। प्रेम जीवन है, द्वेष मृत्यु है।
  • विश्व एक विशाल व्यायामशाला है जहाँ हम खुद को मजबूत बनाने के लिए आते हैं।
  • एक अच्छे चरित्र का निर्माण हजारो बार ठोकर खाने के बाद ही होता है।
  • जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भगवान पर विश्वास नहीं कर सकते।
  • खुद को कमजोर समझना सबसे बड़ा पाप है।
  • सत्य को हजार तरीकों से बताया जा सकता है, फिर भी वह एक सत्य ही होगा।
  • हम जो बोते हैं वो काटते हैं। हम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हैं।
  • जो कुछ भी तुमको कमजोर बनाता है – शारीरिक, बौद्धिक या मानसिक उसे जहर की तरह त्याग दो।

विवेकानंद जी की जयंती (Birth Anniversay of Swami Vivekanand)

विवेकानंद जी की जयंती हर वर्ष 12 जनवरी को मनाई जाती है। विवेकानंद की जयंती भारत में राष्ट्रीय युवा दिवस (National youth day) के रूप में मनायी जाती है।

Atal Bihari Vajpayee ka Jeevan Parichay 2023: अटल बिहारी बाजपेयी का जीवन परिचय

अटल बिहारी बाजपेयी पर 10 लाइन निबंध हिंदी में (10 Lines on Atal Bihari Vajpayee in Hindi)

  1. श्री अटल बिहारी वाजपेयी, भारतीय राजनीति के महान नेता और पूर्व प्रधानमंत्री थे।
  2. उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के उत्थान में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
  3. उनका जन्म 25 दिसंबर, 1924 को हुआ था और उन्होंने अपने 93 वर्षीय जीवन में देश के विकास में अहम भूमिका निभाई।
  4. अटल बिहारी वाजपेयी, अपने भाषणों से सभी को मोहित कर लिया करते थे।
  5. वाजपेयी जी ने अपने प्रधानमंत्री पद के दौरान ‘आत्मनिर्भर भारत’ की मानसिकता को प्रोत्साहित किया था।
  6. उन्होंने शांति के लिए पाकिस्तान के साथ वाजपेयी-मुशर्रफ समझौता को प्रमुखता दी और कश्मीर समस्या के समाधान की कोशिश की।
  7. 1998 में भारत ने अपना परमाणु परीक्षण पोखरण- II प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में ही किया था तथा देश ने उनके नेतृत्व में ही 1999 में हुए कारगिल युद्ध में पकिस्तान पर विजय प्राप्त की थी।
  8. उनका साहित्यिक योगदान भी महत्वपूर्ण है, उनकी कविताएँ और लेखन आज भी हमें प्रेरित करते हैं।
  9. उन्होंने अपने प्रधानमंत्री कार्यकाल में गरीबी उन्मूलन, शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार, और ग्रामीण विकास की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए।
  10. 16 अगस्त 2018 को उनके निधन से देश ने एक महान नेता खो दिया, लेकिन उनकी सोच, संकल्पशक्ति, और विचारधारा हमें हमेशा प्रेरित करती रहेगी।

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मीराबाई का जीवन परिचय, पदावली, रचनाएं एवं भाषा शैली 2023: Meera Bai ka Jeevan Parichay in Hindi

मीराबाई का जीवन परिचय | मीराबाई का जीवनी | मीरा बाई की रचनाएँ | Biography of Mira Bai in Hindi | Meera Bai ka Jeevan Parichay in Hindi

मीराबाई का जीवन परिचय (Meera Bai Ka Jeevan Parichay in Hindi): मीराबाई (1498-1547) सोलहवीं शताब्दी की एक महान कृष्ण भक्त और उच्च कोटि की कवयित्री थीं। उन्होंने अपना सारा जीवन कृष्ण भक्ति में व्यतीत किया। मीरा बाई ने कृष्ण भक्ति के अनेक प्रसिद्ध स्फुट पदों की रचना की है। मीरा बाई के गुरु संत रविदास (रैदास )। आज हम मीरा भाई का जीवन परिचय, उनकी साहित्यिक रचनाएं तथा भाषा शैली के बारे में लिखेंगे। आज का हमारा मीरा बाई पर यह लेख आपको मीराबाई से जुड़ी हर मुख्य जानकारी उपलब्ध कराएगा। इसकी सहायता से आप आसानी से सीख सकते हैं कि मीरा बाई की शिक्षाओं का वर्णन कीजिए? मीराबाई का बचपन का नाम क्या है? मीरा बाई की मृत्यु कैसे हुई? भक्ति काव्य में मीराबाई के योगदान का वर्णन कीजिए? मीराबाई ने मेवाड़ क्यों त्याग दिया? मीराबाई का साहित्यिक परिचय आदि। यूँ तो मीरा बाई के बारे में हम सभी को जानना चाहिए लेकिन खास तौर से कक्षा 9 और कक्षा 10 में मीराबाई का जीवन परिचय पूछा जाता है। तो आइये शुरू करते हैं महान कृष्ण भक्त मीरा बाई का जीवन परिचय (Meera Bai ka Jeevan Parichai in Hindi)।

मीराबाई का जीवन परिचय (Biography of Meera Bai in Hindi)

मीराबाई का जन्म 1498 में मेड़ता के कुड़की ग्राम (पाली) में के राठौड़ रतन सिंह के यहाँ हुआ था। मीरा बाई की माता का नाम वीर कुमारी था जिनका निधन मीरा के बचपन में ही हो गया था। मीरा बाई की माँ की मृत्यु के बाद उनके दादा राव दूदा उन्हें मेड़ता ले आये और बचपन से ही उनका पालन-पोषण किया। इनके दादा जी बहुत ही धार्मिक एवं सज्जन व्यक्ति थे। मीराबाई पर उनके दादा जी का बहुत प्रभाव पड़ा। मीराबाई बचपन से ही अनन्य कृष्ण भक्त थी। बचपन में संगीत सीखने के साथ-साथ आध्यात्मिक शिक्षा और धार्मिक शिक्षा भी ग्रहण की। मीरा बाई का विवाह चित्तौड़गढ़ के महाराजा भोजराज से हुआ जो मेवाड़ के महाराणा सांगा के पुत्र थे। विवाह के कुछ समय पश्चात् ही मीरा बाई के पति का स्वर्गवास हो गया। मीरा पर पति के साथ सती होने का भी प्रयास किया गया, किन्तु मीरा इसके लिए तैयार नहीं हुईं।

पति की मृत्यु के बाद उनकी भक्ति निरंतर बढ़ती गई। मीरा श्रीकृष्ण को अपना पति मानती थी जिसकी वजह से वे हमेशा कृष्ण के पद गाती, साधु-संतो के साथ उनकी हर लीलाओं का वर्णन करती रहती थी ! वह मंदिरों में जाती थीं और कृष्ण के भक्तों के सामने नृत्य करती थीं। मीरा की यह आदत राज परिवार को बिलकुल पसंद नहीं था। राज घराने के द्वारा मीराबाई को कृष्ण भक्ति में गाना और नृत्य ना करने का आदेश दिया गया। मगर कृष्ण भक्त मीरा नहीं मानी, उन्हें वैराग्य हो गया और मीराबाई अपना सारा समय कृष्ण भक्ति में लगाने लगी। मान्यता है कि मीरा बाई को कई बार ज़हर देकर मारने का षड़यंत्र भी किया गया,किन्तु भगवान् कृष्ण की भक्ति में लीन मीरा पर इसका असर नहीं हुआ।

मीरा बाई के गुरु संत रविदास थे। मीराबाई ने श्री कृष्ण को आराध्य मानकर अनेक रचनाएँ लिखीं और अपना समय संतों के साथ हरिकीर्तन करने में व्यतीत करने लगीं। परिवार को छोड़ कर मीराबाई वृन्दावन फिर द्वारिका चली गयीं। इतिहासकारों के अनुसार, मीरा अपने जीवन के अंतिम वर्षों में द्वारका में रहती थी। सन 1547 ईस्वी में ऐसी मान्यता है कि मीरा गुजरात के रणछोड़ मंदिर रहने लगी और वहीं श्री कृष्ण की मूर्ति में विलीन हो गई।

मीराबाई का साहित्यिक परिचय (Meera Bai ka Sahityik Parichay)

मीराबाई का परिचय संक्षिप्त में (Mirabai Biography in Short)

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नाममीराबाई
पितारतन सिंह
मातावीर कुमारी
दादाराव दूदा जी
जन्म1498
जन्म स्थानमेड़ता, राजस्थान
पति का नाममहाराणा भोजराज
गुरुसंत रविदास
लोकप्रिय रचनानरसी जी का मायरा, गीत-गोविंद की टीका, राग सोरठा के पद
उपनामराजस्थान की राधा
जयंतीशरद पूर्णिमा
मृत्यु1547, द्वारका
भाषाब्रजभाषा
शैलीपद शैली
साहित्य कालभक्तिकाल

मीराबाई के बचपन की घटना

मीरा बाई के परिवार में सभी धार्मिक प्रवृत्ति के थे। मीरा भी बचपन से ही कृष्ण भक्ति किया करती थी। एक बार मीरा अपनी माँ के साथ एक बारात देख रही थी। बचपन के कौतुहल स्वभाव के कारण उन्होंने अपनी माँ से, बारात में आये दूल्हे को दिखाकर, पूछा कि माँ, यह कौन है?, माँ ने उत्तर दिया, “यह दूल्हा है जो पड़ोस में रहने वाली लड़की का पति बनेगा।” मीरा ने फिर पूछा कि माँ, मेरा दूल्हा कौन होगा? “माँ ने पुत्री को टालने के लिए यूँही कह दिया कि “तेरा दूल्हा तो कान्हा है।” तभी से यह बात मीरा के मैं में बैठ गयी और मीरा ने श्री कृष्ण को अपने पति रूप में स्वीकार कर लिया और उनका भक्ति भाव, प्रेम भाव में बदल गया।

मीराबाई की रचनाएँ (Meera Bai ki Rachnaye)

मीरा बाई का सारा जीवन कृष्ण भक्ति में समर्पित था। उन्होंने कृष्ण के प्रति अपने प्रेम, वियोग और भक्ति की भावनाओं को पदों के रूप में प्रस्तुत किया जिसे मीरा बाई की रचनाये कहते हैं। मीराबाई अपनी इन्ही रचनाओं द्वारा कृष्ण को याद करती थीं और इन्हे गाकर और इन गीतों और भजनों पर नृत्य करते हुए कृष्ण भक्ति करती थीं। मीराबाई की मुख्य रचनाएं है:

  1. मीराबाई की मल्हार
  2. नरसी जी का मायरा
  3. राग सोरठ के पद
  4. राग विहाग एवं फुटकर पद
  5. राग-गोविंद
  6. गीत-गोविंद की टीका
  7. गरबा गीत

इसके अलावा, मीरा की रचनाओं की “मीरा पदावली” एक प्रसिद्ध महत्वपूर्ण कृति है।

मीराबाई के पद, कविताएं और गीत कृष्ण भक्तों, हिंदी प्रेमियों और काव्य प्रेमियों के बिच बहुत प्रसिद्ध हैं। उनके द्वारा लिखी गयी रचनाओं की एक-एक पंक्ति श्री कृष्ण के प्रति मीरा के अथाह प्रेम की साक्ष्य हैं। मीरा बाई की रचनाओं को पढ़कर पता चलता है कि वह अद्भुत लेखन क्षमता की धनी थी और अपने शब्दों और लेखन के माध्यम से उन्होंने अपने हृदय के उदगार अविश्वसनीय रूप से अभिव्यक्त किये हैं।

मीरा बाई की काव्य शैली तथा भाषा शैली

मीरा बाई की काव्य रचनाओं की प्रसिद्धि का मुख्य कारण इसकी सरलता, सहज अभिव्यक्ति तथा असीम प्रेम भाव था। मीरा की सभी पद, सोरठे, दोहे में उका श्री कृष्ण के प्रति निश्छल प्रेम प्रदर्शित होता है। भक्ति-भजन ही मीरा बाई की काव्य रचनायें है। मीरा ने अपनी रचनाओं में अपने प्रेम, विरह की पीड़ा और कृष्ण से मिलन की आस को इतने सहज ढंग से दर्शाया है कि पढ़ने वालों की आंखों के सामने जैसे उनकी छवि और दृश्य परिलक्षित हो जाता है।

मीरा बाई की काव्य शैली गेय पद शैली अर्थात छंद पद शैली थी। गेय पद शैली तत्कालीन कृष्ण भक्ति कवियों की परंपरागत शैली भी थी। मीरबाई ने राजस्थान से निकलने के बाद कृष्ण से सम्बंधित अनेक स्थानों पर भ्रमण किया जैसे वृन्दावन, मथुरा, द्वारिका आदि, जिसका उनकी रचनाओं में प्रभाव दिखता है। मीराबाई ने अपनी काव्य रचना मुख्य रूप से ब्रज भाषा में की थी लेकिन इनकी भाषा में राजस्थानी और गुजराती भाषा का भी बहुत प्रभाव देखने को मिलता है।

मीरा ने अपनी रचनाओं में मुख्य रूप से श्रृंगार रास में की हैं। इसके साथ ही उनकी काव्य रचना में शांत रस भी कही कही मिलता है। उनको काव्य रचनाओं में कुछ शब्दों की बार बार आवृत्ति होती है। इनमे अनुप्रास, यमक आदि अलंकारों का सुन्दर प्रदर्शन हुआ है। इसके साथ ही मीरा बाई ने उपमा का भी अनूठा और अद्भुत प्रयोग किया है।

मीरा बाई की रचनाओं का भाव पक्ष तथा कला पक्ष

मीरा बाई का काव्य उनकी कृष्ण भक्ति करने का एक माध्यम था। उनका उद्देश्य कभी भी अपने काव्य द्वारा अपनी काव्य क्षमता के पांडित्य का प्रदर्शन नहीं रहा। मीराबाई ने अपनी रचनाओं में बड़े ही सहज और निश्छलता के साथ कृष्ण प्रेम प्रदर्शित किया है।

भाव पक्ष: मीराबाई श्री कृष्ण को पति रूप में मानती थीं। कृष्ण के प्रति उनका अथाह प्रेम था। मीरा बाई की काव्य रचनाएं भावनाओं का महासागर हैं। एकतरफ मीरा, कृष्ण प्रेम के भाव में कहती थी “मेरो तो गिरधर गोपाल दुसरो न कोई” वही दूसरी ओर मीरा कृष्ण के विरह में कहती थी “कागा सब तन खाइयो, चुण-चुण खाइयो मास, दो नैणां मत खाइयो, मोहे पिया मिलन री आस।” भावनाओं को यह अभिव्यक्ति मीरा के काव्य रचना में अत्यंत अनुकरणीय है।

कला पक्ष: मीरा बाई की सभी काव्य रचनाएं संगीत के सुरों में पिरोयी हुई थी। मीरा के काव्य रचनाओं को गीति काव्य या गेय पद कहा जाता है। वास्तव में मीरा बाई अपनी सभी रचनायें गाकर कृष्ण भक्ति किया करती थी। उन्होंने अपने काव्य में ब्रज भाषा का प्रयोग निपुणता के साथ किया। उनकी भाषा में राजस्थानी और गुजराती भाषा का भी प्रभाव देखने को मिलता है।

मीराबाई के पद (दोहे) (Meera Bai ke Pad Arth Sahit)

मीरा बाई के पद (दोहे) – 1

पायो जी मैंने राम रतन धन पायो !
वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु किरपा करि अपनायो।
जनम जनम की पूंजी पाई जग में सभी खोवायो।
खरचै न खूटै चोर न लूटै दिन दिन बढ़त सवायो।
सत की नाव खेवटिया सतगुरु भवसागर तर आयो।
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर हरष हरष जस गायो।

मीरा बाई के पद का हिन्दी अर्थ

मीराबाई कहती हैं की मैंने राम (कृष्ण) नाम का आलौकिक और अमूल्य धन प्राप्त कर लिया है। जिसे मेरे गुरु संत रविदास जी ने मुझ पर कृपा करके दिया हैं। मीरा कहतीं है कि मुझे अनेक जन्मों की पूंजी मिल गयी है और अब मुझे संसार की किसी चीज़ की आवश्यकता नहीं है। मुझे ऐसा अमूल्य कृष्ण रूपी रत्न का यह धन प्राप्त हुआ है जो खर्च करने से कम नहीं होता है और कोई चोर इसे चुरा भी नहीं सकता। यह धन तो दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जाता है| मेरे गुरु ने मुझे सत्य का ज्ञान कराया है और इस संसार को मोह-माया के महासागर से मुझे मोक्ष रुपी किनारे पर ले आये हैं। मीरा कहती हैं की मेरे तो स्वामी श्री कृष्ण हैं और मैं ुंझे पाकर बहुत हर्षित हूँ तथा उनके महात्म्य का गुणगान अर्थ यशगान करती रहती हूँ।

Paayo ji maine Raam ratan dhan paayo!
Vastu amolik dee mere satguru kirpa kari apnaayo.
Janam janam ki poonji paayi jag mein sabhi khovaayo.
Kharchai na khoote chor na lootai din din badhat savaayo.
Sat ki naav khewatiya satguru bhavsaagar tar aayo.
Meera ke prabhu Giridhar Naagar harsh harsh jas gaayo.

Meaning of Meerabai’s Bhajan in English

Mirabai states that she has obtained the divine and invaluable treasure of the name of Lord Rama (Krishna), bestowed upon her through the grace of her Guru, Saint Ravidas Ji. She proclaims that she has acquired the wealth accumulated over countless lifetimes, and now she has no need for anything worldly. She has received this priceless wealth in the form of the gem-like Krishna, a wealth that is no less than any other, and which cannot be stolen by any thief. This wealth only continues to grow day by day.

Her Guru has imparted to her the knowledge of truth, and he has guided her from the vast ocean of worldly illusions to the shore of liberation. Mirabai declares that her Lord is none other than Shri Krishna, and she feels immense joy in having found him. She continuously sings the praises and glory of his virtues and accomplishments.

मीरा बाई के पद (दोहे) – 2

हेरी म्हा दरद दिवाणी म्हारा दरद ना जाण्याँ कोय।
घायल रो गत घायल जाण्याँ,हिबडो अगण संजोय।
जौहर की गत जौहरी जाणै,क्या जाण्याँ जण खोय।
दरद को मारया दर दर डोल्या वैद मिल्य णा कोय।
मीरा री प्रभु पीर मिटाँगाजब वैद साँवरो होय।।

मीरा बाई के पद का हिन्दी अर्थ मीरा बाई ने इस पद में अपनी विरह-भावना को व्यक्त किया है। मीरा कहती हैं:

अरी, मैं तो अपने प्रभु श्री कृष्ण के दर्शन को व्याकुल हूँ, अपने आराध्य गिरधर गोपाल से मिलना चाहती हूँ। लेकिन उनसे न मिल पाने के कारण मैं बहुत व्यथित हूँ, मेरे मन में बहुत पीड़ा है। मैं कृष्ण के विरह में दीवानी अर्थात पागल सी हो गयी हूँ। मेरा यह दर्द कोई नहीं समझ सकता है। जिस प्रकार जब किसी को चोट लगती है तो केवल वही उसकी पीड़ा का एहसास कर सकता है जिसे कभी चोट लगी हो, जिसे कभी चोट न लगी हो ऐसा व्यक्ति दर्द नहीं समझ सकता। उसी प्रकार मेरे मैं की पीड़ा को भी कोई महसूस नहीं कर सकता। प्रेम विरह में जलते मन की पीड़ा तो केवल वही समझ सकता है जो कभी प्रेम अग्नि में जला हो। असली सोने की परख तो केवल सुनार ही कर सकता है, आम आदमी नहीं। असली नकली सोने की पहचान करना केवल सुनार का ही काम है। अपने दर्द के उपाय के लिए व्यक्ति हर जगह वैद्य की तलाश में भटकता है ताकि उसे आराम मिल जाए। लेकिन मैं कृष्ण वियोग की पीड़ा के उपाय के लिए अनेक जगह गयी किन्तु मुझे कोई वैद्य नहीं मिला जो मेरे दर्द को ठीक कर सके। आगे मीराबाई कहती हैं कि मेरे प्रभु श्री कृष्ण हैं, उनका दर्शन ही मेरे दर्द की दवा है और कृष्ण ही मेरे वैद्य हैं जो मेरे दर्द को का उपाय कर सकते हैं।

He ri mha dard divaani, mhaara dard na jaanyaan koy.
Ghaayal ro gat ghaayal jaanyaan, hibdo agan sanjoy.
Jauhar ki gat jauhari jaanai, kya jaanyaan jan khoy.
Dard ko maarya dar dar dolyaa, vaid milya na koy.
Meera ri prabhu peer mitaangaa, jab vaid saanvaro hoy.

Meaning of Meera bai’s Pad in English

Alas, I am overwhelmed by the desire to behold my beloved Lord Shri Krishna, to meet my adored Giridhar Gopal. But due to not being able to unite with him, I am in immense anguish; my heart is filled with pain. I have become madly devoted, meaning I am crazed in the separation from Krishna. This pain of mine, no one can comprehend. Just as only someone who has been wounded can truly understand the agony of that wound, someone who has never been wounded can never understand that pain. Similarly, only someone who has burned in the flames of love’s separation can truly grasp the agony of a burning heart. Just as a true goldsmith can recognize genuine gold, an ordinary person cannot. Distinguishing between real and fake gold is the skill of a goldsmith alone.

When seeking remedies for their pain, individuals wander everywhere in search of a healer, hoping to find relief. However, I have traversed many places in search of a solution for the pain of Krishna’s separation, yet I have not found a physician who can cure my pain. Ahead, Mira bai states that her Lord Shri Krishna is the one who can heal her pain. His sight alone is the medicine for her pain, and Krishna himself is her healer who can provide a remedy for her suffering.

मीरा बाई के पद (दोहे) – 3

बसो मोरे नैनन में नँदलाल ।
मोर मुकुट मकराकृत कुंडल, अरुण तिलक दिये भाल ।।
मोहनी मूरति साँवरी सूरति, नैणा बने बिसाल ।
अधर सुधारस मुरली राजति, उर बैजंती माल ।।
छुद्र घंटिका कटि तट सोभित, नूपुर सबद रसाल ।
मीराँ प्रभु संतन सुखदाई, भक्‍त बछल गोपाल ।।

Meera Bai ka Jeevan Parichay in Hindi

मीरा बाई के पद का हिन्दी अर्थ इस पद में मीरा बाई कहती हैं:

हे नन्द के पुत्र, श्री कृष्ण! आप सदैव मेरे नयनों में निवास करिये। आपकी यह सुन्दर मनोरम छवि सदा मेरी आँखों में रहे। हे प्रभु आपके सिर पर मोर पंख का मुकुट एवं कानों में मछली की आकृति का कर्ण कुंडल सुशोभित है, माथे पर लाल रंग का तिलक लगा हुआ है । हे श्री कृष्ण, आपका रूप सबको मोहित कर लेने वाला है, आपके शरीर का सांवला रंग, विशाल नेत्र, आपका सौंदर्य मनमोहक है। हे कृष्ण, आपके होंठों पर अमृत रस बरसाने वाली मुरली, अर्थात बांसुरी सुशोभित है और आपने गले में बैजंती माला पहनी हुई है। मेरे प्रभु श्री कृष्ण की कमर में छोटी-छोटी घंटियाँ बंधी हैं, और पैरों में मधुर ध्वनि उत्पन्न करने वाले पायल सुशोभित है। आगे मीरा कहती हैं कि मेरे प्रभु संतों को सुख देने वाले और अपने सभी भक्तों से प्रेम करने वाले हैं।

Baso more nainan mein Nandalal.
Mor mukut makarākṛit kuṇḍal, aruṇ tilak diye bhāl.
Mohni mūrati sānvarī sūrati, naina bane bisāl.
Adhar sudhāras murali rājati, ur baijanti māl.
Chhudra ghaṁṭikā kaṭi ṭaṭ sobhit, nūpur sabad rasāl.
Mīrā prabhu santan sukhadāī, bhakt bakhāl Gopal.

English Meaning of Meerabai’s Pad

Oh Son of Nanda, Lord Shri Krishna, may you forever reside in my eyes. Your beautiful and enchanting form should always remain within my sight. Oh Lord, you wear a crown of peacock feathers on your head and earrings resembling fish in your ears. A red mark adorns your forehead. Shri Krishna, your form captivates everyone; the dusky hue of your body, your expansive eyes, your mesmerizing beauty.

Oh Krishna, the flute in your lips showers the nectar of melodious music, and you wear a garland of forest flowers around your neck. My Lord Shri Krishna, your waist is adorned with small bells, and your feet are adorned with anklets that produce sweet sounds. Ahead, Meera states that her Lord bestows happiness upon the saints and loves all his devotees.

मीरा बाई के पद (दोहे) – 4

फागुन के दिन चार रे, होरी खेल मना रे।
बिन करताल पखावज बाजै, अनहद की झनकार रे।।
बिन सुर राग छतीसूँ गावे, रोम रोम रंग सार रे।।
शील सन्तोष की केसर घोली, प्रेम-प्रीत पिचकार रे।।
उड़त गुलाल लाल भये बादल, बरसत रंग अपार रे।।
घटके सब पट खोल दिये हैं, लोकलाज सब डार रे।।
होली खेल प्यारौ पिय घर आये, सोइ पियारी पिय प्यार रे।।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, चरण कमल बलिहार रे।।

Fāgun ke din chār re, horī khel manā re.
Bin karatāl pakhāvaj bājai, anhad kī jhankār re.
Bin sur rāg chhatisū̃ gāve, rom rom raṁg sār re.
Shīl saṁtoṣh kī kesar gholī, prem-prīt pichakār re.
Uṛat gulāl lāl bhaye bādal, barasat raṁg apar re.
Ghaṭke sab paṭ khol diyē hain, loklāj sab ḍār re.
Holī khel pyārau piya ghar āyē, soi piyārī piya pyār re.
Mīrā ke prabhu Giradharnāgar, charan kamal balihār re.

मीरा बाई पर 10 लाइन निबंध हिंदी में (10 Lines on Meera bai in Hindi)

  1. मीरा बाई, एक महान भक्तिकालीन कवयित्री थी, जिन्होंने अपनी प्रेम-भक्ति के आदर्शों से लोगों को प्रेरित किया।
  2. मीरा बाई का जन्म सं 1498 में राजस्थान के मेवड़िया में हुआ था।
  3. उन्होंने अपने जीवन में श्रीकृष्ण के प्रति अत्यधिक प्रेम और समर्पण दिखाया।
  4. उनकी रचनाएँ भक्ति और प्रेम के अद्वितीय काव्य का उत्कृष्ठ उदाहरण हैं।
  5. मीरा बाई के पदों और भजनों से उनके गहरे आत्मीयता का अनुभव होता है, जो उन्होंने अपने ईश्वरीय संवाद में व्यक्त किया।
  6. उनके श्रीकृष्ण के प्रति अटूट प्रेम ने उन्हें एक महान भक्त बनाया।
  7. मीरा को राजस्थान की राधा भी कहते हैं।
  8. मीरा बाई के काव्य में श्रृंगार और शांत रास प्रकट होते है।
  9. मीरा बाई का जीवन एक प्रेरणास्त्रोत रहा है, जो हमें ईश्वर के प्रति अटल प्रेम और सेवा की महत्वपूर्ण शिक्षा देता है।
  10. उनकी कविताएँ और भजन साहित्य में उनके महान योगदान को सदैव याद रखा जाएगा।